ऋग्वेद संहिता ॥ अथ प्रथमं मण्डलम् ॥ सूक्त - १
- Destination Europe
- Added by Admin
- May 01, 2023

[ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र देवता अग्नि छन्द-गायत्री ]
१. ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ १॥
हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं। (कैसे अग्निदेव ?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढ़ाने वाले), देवता (अनुदान देने वाले), ऋत्विज् (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करने वाले), होता (देवों का आवाहन करने वाले) और याजकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले हैं ॥१ ॥
२. अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति ॥ २ ॥
जो अग्निदेव पूर्वकालीन ऋषियों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करे ॥२ ॥
३. अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे l यशसं वीरवत्तमम् ॥ ३ ॥
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढ़ाने वाले अग्निदेव मनुष्यों (यजमानों) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर पुरुष प्रदान करने वाले हैं ॥३ ॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद्देवेषु गच्छति ॥ ४ ॥
हे अग्निदेव! आप सबका रक्षण करने में समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है ॥४॥
५. अग्निहोंता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत् ॥ ५ ॥
हे अग्निदेव ! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त है। आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारे ॥५ ॥
६. यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ६ ॥
हे अग्निदेव ! आप यज्ञ करने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं को समृद्धि करके जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य में किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है।
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्थिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ॥ ७ ॥
हे जाज्वल्यमान अग्निदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव! हमें आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७ ॥
८. राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे ॥ ८ ॥
हम गृहस्थ लोग दीप्तिमान् यज्ञों के सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले बस्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८ ॥
९. स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥ ९ ॥
हेगार्हपत्यअग्ने ! जिसप्रकारपुत्रकोपिता (बिनाबाधाकेसहजहीप्राप्तहोताहै, उसीप्रकारआपभी (हमयजमानोंकेलिये) बाधारहितहोकरसुखपूर्वकप्राप्तहो।आपहमारेकल्याणकेलियेहमारेनिकट रहें॥९॥Recent Post
View Allमानव शृष्टि को बनाए रखने के लिए जल का संग्रहण आवश्यक है
हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि जल ही ...
How might Nidhivan reduce the cost of tree planting?
Nidhivan is dedicated to saving the earth. Tree planting is part of what we...